Wednesday, June 15, 2011

क्षितिज से भी आगे


        लोग उसे  कालू के नाम से पुकारते थे. काला भुजंग शरीर , घनी दादी - मूंछ और  जटा - जूट, उसकी उम्र बीत गयी थी मुर्दों को मरघट मैं पंचतत्व में मिलाते हुए. एक दिन एक महान धर्मगुरु गाँव के बाहर प्रवचन के लिए पधारे. कालू  भी जिज्ञासा वश दर्शन को जा पहुंचा.
           धर्मगुरु प्रदक्षिणा के लिए ज्यों ही चलने को हुए, सामने कालू  आ गया. धर्मगुरु क्रोध से चिल्ला उठे - " दुष्ट! दूर हट जा. रास्ते को अपवित्र न कर. "
          " गुरु महाराज! मेरे चारों और तो पवित्रता फैली है. मैं अपवित्र मरघटिया  कहाँ जाऊं. जहां देखता हूँ वहीं प्रभु की दिव्यता बिखरी है."
धर्म गुरु हटात मौन हो गए और फिर कुछ देर बाद  बोले - " तुमने मेरी  आँखों पर से पर्दा हटा दिया. तुम मरघट वासी हो कर भी दिव्यता देख रहे हो और मैं सारे दिन धर्म और ध्यान में लीन  रहता हूँ फिर भी अपने मन का मैल न धो सका."              
        ज़िन्दगी की सीख : 
                            किसी विषय में कितना भी ज्ञान हो, सदा याद रखें कि  ज्ञान की सीमा क्षितिज से भी आगे है.

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